संयुक्त राष्ट्र संघ की दूत के तीन दिवसीय दौरे से रोहिंग्या मुसलमानों में दौड़ी उम्मीद की किरण।
म्यांमार के मुसलमानों का मानना है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी बड़ी ढिलाई बरती है जिसका कारण अमेरीका की नीतियां तथा ख़ुद इस संस्था का त्रुटिपूर्ण ढांचा है।

विलायत पोर्टलः वर्ष 2009 से अब तक म्यांमार में राजनैतिक और सामाजिक स्तर पर जो परिवर्तन हुए उनसे इस विचार को बल मिला कि इस देश में मुसलमानों की हालत में भी सुधार आएगा लेकिन अपेक्षा के विपरीत मुसलमानों की पीड़ा और उनके विस्थापित होने की दुखद प्रक्रिया और भी गहरी तथा व्यापक हो गई। उन्हें चरमपंथी बौद्धों ने भी हमले का निशाना बनाया जबकि प्रशासन और सुरक्षा बलों की ओर से पीड़ित और निहत्थे मुसलमानों पर हमले के साक्ष्य सामने आए। लोकतंत्र के लिए लंबी लड़ाई लड़ने वाली आंग सांग सूकी ने भी इस अति गंभीर मामले में बड़ी आपत्तिजनक चुप्पी साध ली।
म्यांमार के मुसलमानों का मानना है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी बड़ी ढिलाई बरती है जिसका कारण अमेरीका की नीतियां तथा ख़ुद इस संस्था का त्रुटिपूर्ण ढांचा है। लेकिन जब क्षेत्र और विश्व के जनमत का दबाव बढ़ा तो संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य संस्थाओं ने म्यांमार के मुसलमानों की दयनीय स्थिति पर ध्यान देना शुरू किया और कूटनैतिक प्रयास तेज़ हुए। इन्हीं हालात में संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेष दूत यांग ली म्यांमार गईं ताकि रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति का जायज़ा लें लेकिन तीन दिन की यात्रा में उन्हें राख़ीन प्रांत के कुछ क्षेत्रों में जाने से रोक दिय गया। म्यांमार सरकार ने कहा कि वह सुरक्षा कारणों से उन्हें इन क्षेत्रों में जाने की अनुमति नहीं दे सकती। यांग ली ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि उन्हें केवल उन लोगों से बातचीत की अनुमति दी गई जिनकी पुष्टि म्यांमार सरकार ने की हो। ज़ाहिर है कि म्यांमार सरकार ने यह क़दम संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेष दूत की जांच को प्रभावित करने के लिए उठाए हैं। बहरहाल संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेष दूत का यह दौरा पीड़ित अल्पसंख्यकों के लिए आशा की एक किरण है। लेकिन जब तक संयुक्त राष्ट्र संघ अपने दायित्वों पर पूरी आज़ादी के साथ अमल नहीं कर पाता उस समय तक आशा की यह किरण बहुत कमज़ोर रहेगी।
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तेहरान रेडियो